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देवी का द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचारिणी : माता के मंत्रों का करें जाप, पूरे होंगे सारे काम


 इस वर्ष का शारदीय नवरात्र बीते कल से प्रारंभ हो गया है। शुभ मुहूर्त में कलश स्थापना के साथ व्रत-पूजन शुरू हो गया। देश-विदेश के लगभग सारे देवालयों में इस समय विशेष रूप से पूजन-अर्चन हो रहे है। सकल शक्तिपीठ एवं सिद्धपीठ में माँ के दर्शन हेतु लम्बी कतारें कल सुबह से ही लगनी शुरू हो गयी थी। घर-घर में भी पूजन को लेकर भक्तों में काफी उत्साह है। इसी उत्साह के बीच भक्तगण आज देवी ब्रह्मचारिणी का पूजन-अर्चन करेंगे। देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से व्यक्ति को अपने हर कार्य में जीत हासिल होती है। मां ब्रह्मचारिणी की उपासना करने वाला जातक सर्वत्र विजयी होता है। 


ध्यान मन्त्र:-    दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥


देवी का दूसरे स्वरूप का नाम ब्रह्मचारिणी हैं। अगर इस शब्द के अर्थ की ओर ध्यान दे तो ब्रह्म का अर्थ तप एवं चारिणी का अर्थ है आचरण करने वाली अर्थात तप का आचरण करनेवाली। देवी का यह नाम तप का आचरण करने के कारण ही  ब्रह्मचारिणी पड़ा । तप के आचरण के कारण इनका एक और नाम तपश्चारिणी भी है। इन्हें अर्पणा एवं उमा नाम से भी जाना जाता है। देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अद्भुत है। इन्होंने दाएं हाथ में जपमाला एवं बाएं हाथ में कमण्डल धारण कीया है।   साधक माँ के इस स्वरूप की पूजा करके तप, त्याग, वैराग्य, संयम और सदाचार को प्राप्त करते है। इसके साथ ही इनके पूजन से साधक विद्या को सहज रूप में प्राप्त कर सकते है। देवी ब्रह्मचारिणी के पूजन से भक्त समस्त मनवांछित फलों को अतिशीघ्र प्राप्त कर लेते हैं।


देवी ब्रह्मचारिणी की कथा-- 

पूर्व जन्म में देवी ब्रह्मचारिणी ने राजा हिमालय के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। देवी के जन्म लेते ही त्रिलोक जय-जयकार गूंज उठा। कन्या रूप में जन्मी ब्रह्मचारिणी धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। धीरे-धीरे एक समय ऐसा आया कि वह विवाह की उम्र में आ पहुँची। देवर्षि नारद के निर्देशानुसार भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए देवी ने कठिन तपस्या की। एक हजार वर्ष तक देवी ने केवल फल खाएं फिर वो फूल खाकर रहने लगी। खुले आकाश के नीचे  वर्षा धूप का थोड़ा भी परवाह उन्होंने नही किया एवं कठिन तपस्या में लीन रही। आगे चलकर वर्षो तक केवल टूटे विल्वपत्र खाकर इनकी तपस्या जारी रही। इसके उपरांत देवी ने विल्वपत्र के पतो को भी खाना छोड़ दिया। पत्तों को भी खाना छोड़ देने के कारण देवी 'अर्पणा' नाम से भी जानी जाती है। देवी ने सारा आहार लेना तो छोड़ ही दिया इसके उपरांत  जल भी ग्रहण करना छोड़ के हजारों वर्षों निर्जल निराहार रहकर व्रत करती रही। 

देवी की यह दशा देखकर उनकी माता रानी मैना अत्यंत दुःखी हुई और उन्होंने उन्हें इस कठिन तपस्या से विरक्त करने के लिए आवाज़ दी 'उ मा'। तब से देवी ब्रह्मचारिणी का एक नाम उमा भी पड़ गया।

 समस्त देवगणों ने कहा है :- हे देवी! आप समान इस दुनिया में ऐसा कोई तप नही कर सकता। आप समान कोई तपस्वी या त्वस्विनी न हुआ है और नहीं भविष्य में होगा। आपकी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी। आपकी  मनोकामना भगवान शिव शीघ्र ही पूर्ण करेंगे एवं पति रूप में मिलेंगे।


देवी ब्रह्मचारिणी की शक्ति- 

इस दिन साधक कुंडलिनी शक्ति को जगाने हेतु भी साधना करते हैं। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान ’चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। माता ब्रह्मचारिणी की आराधना से हमारे शरीर का स्वाधिष्ठान चक्र जागृत होता है। यह मन के शुद्धिकरण और विचारों को नियंत्रित करने में मदद करता है। 

देवी की आराधना,पूजा से भक्तो को तप, वैराग्य, संयम त्याग,सदाचार,सद्विवेक सहित समस्त कामनाये पूर्ण होती है। जिन लोगों के विवाह में बाधाएं आ रही हो देवी के उपासना से बाधाएं दूर होती हैं। इनकी कृपा से अज्ञानी भी ज्ञानी होते है। इनके आशीष से विद्या ग्रहण की इच्छा रखने वाला शीघ्र विद्या को प्राप्त कर विद्वान बन जाता है।

            

देवी ब्रह्मचारिणी को प्रिय

देवी ब्रह्मचारिणी को श्वेत पुष्प के साथ सुगंधित पुष्प पसन्द है। इसके साथ गुलहड़ एवं कमल का पुष्प भी बेहद पसंद है। देवी को श्वेत भोग अर्पित करना चाहिए। इन्हें पंचामृत भी विशेष रूप से अर्पित करना चाहिए। माँ को शक्कर का भोग प्रिय है। मान्यता के अनुसार देवी का पूजन अगर पिला या श्वेत वस्त्र पहनकर किया जाय तो देवी शीघ्र प्रसन्न होती है। 



ब्रह्मचारिणी  स्तोत्र--

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।

ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।

शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥



 ब्रह्मचारिणी कवच


त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।

अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥

पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥

षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।

अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।

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