मुल्क के अनुभवी राजनेता भारतीय राजनीति के एक प्रमुख व्यक्तिव मुलायम सिंह यादव को इसलिए नेताजी कहा जाता है क्योंकि यह संबोधन सम्मानित नेता के लिए होता है। नेताजी एक साधारण परिवार में जन्मे और रोजी -रोटी के लिए उन्होंने शिक्षकीय पेशे को चुना। लोहिया की समाजवादी विचारधारा ने उन्हें राजनीति की तरफ आकर्षित किया। उन दिनों कांग्रेस का जनमानस में इतना प्रभाव था कि लोग कांग्रेस पार्टी के अलावा किसी दूसरी पार्टी अथवा विचारधारा के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। भारतीय समाज और उसकी दशा सोचनीय थी। समाज में ऊंच -नीच की भावना और आर्थिक असमानता ने लोहिया जैसे राजनीतिक सूझबूझ वाले व्यक्ति के मन में एक आंदोलन पैदा किया। फलस्वरूप मुल्क में समाजवादी विचारधारा को जन्म दिया। ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेताजी को इस विचारधारा ने प्रभावित किया और उन्होंने राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श माना और सोशलिस्ट पार्टी में एक कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू किया। अपनी मेहनत और राजनीतिक प्रतिबद्धता की वजह से उनका अपना कद बढ़ता गया। पहले विधायक फिर जनता पार्टी के शासन में नेताजी पशुपालन मंत्री बने।
ऐसी महान शख्सियत के सभी से अच्छे रिश्ते रहे। एक बार मशहूर शायर मुनव्वर राणा नेताजी से मिलने उनके बेटे तबरेज़ के साथ उनके आवास पर गये तो नेताजी के कमर में दर्द होने की वजह से वे दस पंद्रह मिनट देरी से उनके पास पहुंचे तो सर्वप्रथम अभिवादन के पश्चात नेताजी ने मुनव्वर राणा से कहा क्षमा चाहता हूँ रात में कमर में दर्द था इसलिए थोड़ी देरी हो गई। इस पर मुनव्वर राणा ने कहा -नेताजी कोई बात नहीं है आपकी देरी की वजह से मैंने आपके मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव के लिए एक शायरी कर ली है।
अभी हैं तो हुनर हमारे ले लो,
वरना हम भी किसी दीवार से लगे रहेंगे।
अक्खड़ पहलवान से स्कूल मास्टर और फिर सियासत के 'नेताजी'। भूमिका जो भी रही हो, नेताजी ने हवा का रुख समझा लेकिन सत्ता की आकांक्षा अपने मन में पाले कांग्रेस को इस पहलवान ने परखा और उसके हिसाब से ही दांव लगाया। यही वजह थी कि सीएम की कुर्सी पर बैठने के बाद सियासत के तीन दशक में वे ताकतवर हुए हों या कमजोर, लेकिन कभी अप्रासंगिक नहीं रहे। उनकी चौंकाने की कला जिसे 'चरखा दांव' कहा गया बड़े-बड़ों को धूल चटाती रही।
सियासी हवा को भांपने की उनकी क्षमता 16वीं लोकसभा के आखिरी दिन भी दिखी, जब उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी को दोबारा पीएम बनने का आशीर्वाद दिया। जिस समय अखिलेश की अगुआई में सपा, बसपा से गठबंधन कर अस्तित्व बचाने में लगी थी, उनका यह बयान पूरे विपक्ष को असहज कर गया। नतीजे उनके 'आशीर्वाद' के अनुकूल ही रहे। हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मोदी उनको 56 इंच का सीना दिखा रहे थे, तब भी शपथ ग्रहण में उन्हें अमित शाह ने हाथ पकड़कर अगली कुर्सी पर बिठाया था। वहीं, सैफई परिवार पर भ्रष्टाचार के जुबानी आरोपों के अलावा भाजपा की सरकारों ने नेताजी और उनके सुपुत्रअखिलेश यादव को निजी तौर पर असहज करने वाले कदम कभी नहीं उठाए।
अस्सी के दशक में यूपी में कांग्रेस की जमीन दरकने लगी थी। इस दौर में बिखरा विपक्ष एक हुआ और चार दलों को मिलाकर जनता दल बना। 1989 में हुए विधानसभा चुनाव में जनता दल को 425 में 208 सीटें मिलीं, यानी बहुमत से थोड़ा कम। जनता दल में मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार थे- पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह और नेताजी। वीपी सिंह भी अजित सिंह के पक्ष में थे और उनको उपमुख्यमंत्री का ऑफर था, लेकिन बाजी पलट गई। फैसला गुप्त मतदान से हुआ और अजित की टीम में सेंध लगाकर नेताजी समर्थन अपने पक्ष में ले गए। नेताजी5 दिसंबर 1989 को पहली बार सीएम बने। दिलचस्प बात यह थी कि उनकी सरकार को बाहर से भाजपा ने समर्थन दिया था।
अंतर्विरोध और भीतरघात से भरी इस सरकार के सामने पहला संकट तब खड़ा हुआ, जब अगस्त 1990 में अयोध्या में प्रस्तावित शिलान्यास को लेकर द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती की गिरफ्तारी हुई। वहीं, वेस्ट यूपी में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत और उनके समर्थकों की गिरफ्तारी ने विरोध की आवाज बुलंद कर दी। उधर, भाजपा ने भी समर्थन वापस ले लिया। इसी बीच केंद्र की राजनीति भी बदल रही थी। वीपी सिंह सत्ता से बाहर हो गए और चंद्रशेखर कांग्रेस के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। मौका देख अजित ने भी 90 विधायकों के साथ नेताजी को नेता मानने से इनकार कर दिया। नेताजी ने चंद्रशेखर को साधा और जिस कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था, उसी ने समर्थन देकर उनकी सरकार बचा ली।ऐसे में मुझे मुनव्वर राणा का यह शेर याद आता है-सियासत से अदब की दोस्ती बे मेल लगती है,
कभी देखा है पत्थर पर कोई बेल लगती है।
लोहिया की संगत, चौधरी चरण सिंह की रंगत में आगे बढ़े नेताजी की राजनीति मौके को पहचान कर छोड़ने और जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ी। चरण सिंह के शिष्य नेताजी ने पहले अजित सिंह को सीएम बनने से रोका, वीपी सिंह से नाता तोड़ा और अब फिर चंद्रशेखर से भी अलग हो गए। उनका कहना था कि केंद्रीय नेताओं को हम भीड़ और संसाधन देते हैं और वह हमें बोलने का सबक। अब हम अपना रास्ता खुद बनाएंगे। 4 अक्टूबर, 1992 को लखनऊ में नेताजी ने सपा का गठन किया। नवंबर में हुए सम्मेलन में पदाधिकारियों की घोषणा हुई तो उसमें नाम न होने पर बेनी प्रसाद वर्मा रूठ कर घर बैठ गए। नेताजी उन्हें मनाकर सम्मेलन में लाए। छोड़ने और जोड़ने की कला के दम पर उनकी अगुआई में यह क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में भी अहम हस्तक्षेप करता रहा।
नई पार्टी बनाने के पहले नेताजी 1991 का चुनाव देख चुके थे। कमंडल से उपजी सियासत को पस्त करने के लिए मंडल ही रास्ता था। इसलिए नेताजी ने कांशीराम की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इसकी जमीन बना
इटावा लोकसभा उपचुनाव। उनके करीबी राम सिंह शाक्य सपा उम्मीदवार थे और कांशीराम बसपा के। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि नेताजी ने अपने ही उम्मीदवार के खिलाफ बिना शोर-शराबे के प्रचार कर कांशीराम को जितवा दिया। यहां बने सपा-बसपा गठबंधन के बांध ने 1993 में रामलहर को बांध दिया। सत्ता तो आई, लेकिन महत्वाकांक्षा की लड़ाई में यह दोस्ती लंबी नहीं चल सकी। 25 साल बाद नेताजी के उत्तराधिकारी अखिलेश यादव और कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती ने फिर दोस्ती दोहराई, लेकिन नतीजा 'शून्य' रहा।
1999 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कई विपक्षी दलों का समर्थन पत्र लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंचीं। इसमें सपा का भी नाम था, लेकिन सत्ता की आश्वस्त कांग्रेस को अगले दिन नेताजी ने करारा झटका दिया और सोनिया के 'विदेशी मूल' का मुद्दा उठाकर समर्थन देने से मना कर दिया। सोनिया की पीएम की राह रुक गई और देश को चुनाव में उतरना पड़ा। राजनीति में 'अनिश्चितता' के प्रतीक बन चुके नेताजी ने 2004 में फिर चौंकाया। उनके दूत बनकर अमर सिंह यूपीए के लिए सपा का समर्थन पत्र लेकर पहुंच गए, लेकिन धोखा खा चुकीं सोनिया ने उन्हें उलटे पांव लौटा दिया।
राजनीति में विरोधियों को समर्थक कैसे बनाना है, को इस बारे में महारत हासिल था। अगस्त 2003 में बसपा-भाजपा के बिगड़ते रिश्तों के बीच मायावती ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी। तत्कालीन राज्यपाल ने यह कहकर विधानसभा भंग नहीं की, क्योंकि भाजपा विधायकों ने पहले ही समर्थन वापस ले लिया था। नेताजी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। बसपा के 13 विधायक उनके समर्थन में आ गए। बसपा ने अपने ही विधायकों की सदस्यता खत्म करने की मांग की, लेकिन भाजपा नेता व तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी ने इसे लंबित रखा। राज्यपाल ने नेताजी को शपथ के लिए बुलाया तो भाजपा नेता लालजी टंडन ने इसे लोकतंत्र की जीत बताया। वहीं, अजित सिंह, कांग्रेस के अलावा धुर-विरोधी कल्याण सिंह की पार्टी भी नेताजी के साथ आ गई। नेताजी ने केशरीनाथ को विधानसभा अध्यक्ष बनाए रखा और राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा उम्मीदवार का समर्थन भी किया।
वैचारिक तौर पर नेताजी साथ रहें हो या खिलाफ, लेकिन सियासी समीकरण साधने के लिए उनके लिए कोई 'अछूत' नहीं रहा। 2008 में मनमोहन सिंह सरकार अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील कर रही थी। विरोध कर रहे वामपंथी दलों के एक झंडाबरदार नेताजी भी थे, लेकिन एकाएक वह लेफ्ट को 'लेफ्ट' कर डील के समर्थन में आ गए। वजह जो भी हो, लेकिन सियासी मंचों पर नेताजी और उनके सुपुत्र अखिलेश यादव दोनों ही कांग्रेस पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं। 2012 में नेताजी राष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा के बाद कांग्रेस के पक्ष में आ गए थे।
मन से तो मुलायम, इरादे फौलादी थे।
तमाम विशेषणों से पुकारे जाने वाले नेताजी कुश्ती की तरह राजनीति के अखाड़े में भी किसी धुरंधर पहलवान से कम नहीं थे। एक सामान्य परिवार से राजनीति के शिखर पर पहुंचे इस 'धरती पुत्र' का अपनी मिट्टी से लगाव ही जीत की आधारशिला बनता रहा। सामान्य कार्यकर्ताओं को भी नाम से पहचान कर 'मन से मुलायम' थे तो इरादे दिखाकर 'चरखा' दांव से राजनीति में बड़े-बड़ों को धराशायी भी किया।
22 नवंबर, 1939 को इटावा जिले में सामान्य गरीब किसान परिवार में जन्मे नेताजी ने राजनीति में बढ़ने का संकल्प लिया। माता मूर्ति देवी और पिता सुघर सिंह यादव ने अभावों के बावजूद उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित किया। उनकी शुरुआती पढ़ाई आसपास के गांवों में हुई। फिर इटावा के केके डिग्री कॉलेज से स्नातक कर आगरा यूनिवर्सिटी से एमए करने के बाद करहल इंटर कॉलेज में शिक्षण शुरू किया।
करहल के तत्कालीन विधायक नत्थू सिंह यादव उर्फ मेंबर साहब को पहलवानी का बड़ा शौक था। नेताजी भी उनके अखाड़े में दांव आजमाने लगे। उनके दांव-पेच से मेंबर साहब बहुत प्रभावित हुए और राजनीति में सक्रिय कर अपनी विधानसभा सीट से चुनाव में उतारा। इमरजेंसी के समय वह 19 महीने जेल में रहे। जेल में उनके कार्य व्यवहार का जिक्र डॉ. राममनोहर लोहिया के सहयोगी कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने अपनी पुस्तक 'नींव के पत्थर' में किया है। उन्होंने लिखा कि वह युवा आगे चलकर राज्य की बड़ी कुर्सी तक पहुंचेगा।
करहल के अखाड़े में सीखे दांव-पेच का शानदार प्रदर्शन उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए कालीदास मार्ग स्थित सरकारी निवास पर भी किया। उन्होंने वहीं अखाड़ा जमाया और इमजरेंसी में जेल में रहे एक साथी को पटखनी दी। उन्होंने ने अपने चरखा दांव से राजनीति में बड़े-बड़ों को पछाड़ा है। कब, किससे और कैसे संबंध रखने हैं, इसे लोगों को नेताजी से सीखना चाहिए। खांटी समाजवादी नेताजी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी बड़े प्रशंसक थे। पीएम मोदी उनके गांव सैफई में एक पारिवारिक कार्यक्रम में भी पहुंचे थे। स्मृति शेष पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी नेताजी को समर्थन देते रहे और तबके दिग्गज नेता नारायण दत्त दिवारी भी उनके बड़े सहयोगी रहे।
कभी डकैतों के लिए कुख्यात रहे बीहड़ इलाके का सैफई गांव तीन बार सूबे के मुख्यमंत्री रहे नेताजी की जन्मस्थली है। आम तौर पर बड़े ओहदे पर पहुंचते ही लोग अपनी जमीन भुला देते हैं, लेकिन नेताजी इस मायने में अपवाद रहे। उन्होंने बड़े ओहदे पर पहुंचने के बाद भी अपनी जन्मस्थली को भुलाया नहीं, बल्कि उसे अपने सपनों की तरह सजाया। सैफई में ऐसी सुविधाएं हैं, जिनसे कई नगर भी महरूम हैं।
प्रदेश को दो मुख्यमंत्री देने वाला यह गांव विकासखंड और कस्बे की यात्रा पूरी करते हुए तहसील का दर्जा पा चुका है। मैनपुरी और इटावा के बीच स्थित इस गांव में अब ब्लॉक और तहसील कार्यालय के साथ स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल, परिवहन के बेहतर साधन, अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम और नाइट लैंडिंग की सुविधा वाली हवाई पट्टी भी है। हवाई पट्टी पर बोइंग जैसे बड़े जहाज भी उतर सकते हैं। स्टेडियम फ्लड लाइट युक्त और अंतरराष्ट्रीय सुविधाओं वाला है। उनके रक्षा मंत्री बनने के बाद यहां के रेलपथ को भी विकसित किया गया। खेल क्षेत्र की बात करें तो अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स स्टेडियम, स्विमिंग पूल, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम सैफई में विकसित किया गया। सैफई को लैपर्ड, बीयर, डियर सेंचुरी की मंजूरी दी जा चुकी है और इसे विकसित किया जा रहा है।
नेताजी के राजनीतिक गुरु नाथू राम ने जब 1967 के विधानसभा चुनाव में अपनी जसवंतनगर सीट का उत्तराधिकारी नेताजी को घोषित किया तो उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया से कहा- मैं आपको एक बहुत तेज युवा सौंप रहा हूं। इस पर डॉ. लोहिया ने कहा कि यही राजनीति में आने की सही उम्र है। तब नेताजी की उम्र थी 28 साल। तब वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने वाले सबसे कम उम्र के विधायक थे। नेताजी का सियासी सफर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुआ, जो भारतीय किसान दल, भारतीय लोकदल (बीएलडी), लोकदल, जनता दल, जनता पार्टी से होता हुआ अपनी राजनीतिक पार्टी, समाजवादी पार्टी तक पहुंचा। इस दरम्यान सियासत करवटें बदलती रही। नेताजी दल बदलते रहे, लेकिन दिल जोड़ते रहे। इससे उनका कद बढ़ता रहा। व्यक्तित्व और राजनीतिक पहचान में नए आयाम जुड़ते रहे।
वह दौर गैर कांग्रेसवाद का था। पिछड़ों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का मुद्दा उभरकर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रहा था। यह दौर तमाम राजनीतिक बदलावों का भी था। उनके सामने चुनौती उन बदलावों में खुद को न केवल प्रासंगिक बनाए रखने की थी, बल्कि यूपी का चेहरा बनने की भी थी। साल 1967 में लोहिया के निधन के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का असर कम होने लगा। नतीजा यह हुआ कि नेताजी 1969 का चुनाव हार गए। यह दौर चौधरी चरण सिंह के राजनीतिक उभार का दौर था। नेताजी उनके साथ हो लिए। इंदिरा के शासन से नाराज सात दलों को एकजुट करके जब 1974 में बीएलडी बना तो नेताजी इसका अहम चेहरा थे। नेताजी के जुझारू तेवर को देखते हुए चरण सिंह उन्हें 'नन्हा नेपोलियन' कहते थे। नेताजी तीसरी बार विधानसभा इसी दल से पहुंचे।
साल 1975 की इमरजेंसी में नेताजी के तेवर ने उनका कद राष्ट्रीय फलक पर बढ़ा दिया। फिराक़ गोरखपुरी की शायरी इमरजेंसी पर उस समय के हालात बयां करती है-दुनिया थी रहगुज़र तो क़दम मारना था सहल,
मंजिल हुई तो पांव ज़जीर हो गई।
जून 1975 से जनवरी 1977 तक वह जेल में रहे। जब इमरजेंसी हटी और नए चुनाव घोषित हुए तो गैर कांग्रेसवादी दलों की गोलबंदी हो रही थी। राष्ट्रीय फलक पर एकजुटता के दौर में नेताजी यूपी की नुमाइंदगी बराबर करते रहे और जमीनी पकड़ उन्हें राष्ट्रीय फलक पर पहचान देती रही।
बात भले साठ के दशक से एक जैसी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को कांग्रेस के खिलाफ लामबंद करने की होती रही, लेकिन ये प्रयास ज्यादा कारगर नहीं हुए। 1988 के मध्य में चौधरी देवीलाल ने नैशनल फ्रंट बनाने का प्रस्ताव रखा। इस वक्त तक नेताजी राष्ट्रीय फलक पर थर्ड फ्रंट के अहम चेहरों में गिने जाने लगे थे। इस बात को देवीलाल के उस बयान से समझा जा सकता है, जब उन्होंने कहा- 'यूपी राजनीतिक बदलाव में प्रमुख भूमिका अदा करता रहा है। वह आगे भी करता रहेगा।' बयान का इशारा नेताजी की तरफ था, क्योंकि वे ही ऐसे कुछ लोगों में शामिल थे, जिन्होंने देवीलाल के इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। इस बात को लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा और देवीलाल के बीच तनातनी भी शुरू हो गई और लोकदल-बी (लोकदल का एक हिस्सा) देवीलाल के साथ हो गया। मुलायम ने राजनीतिक दलों को एकजुट करने की बागडोर अपने हाथ ले ली। अगस्त 1988 में देवीलाल ने एक अधिवेशन बुलाया, जिससे बहुगुणा ने दूरी बनाए रखी। इसके बाद लोकदल, जनता पार्टी और जन मोर्चा को मिलाकर 1 अक्टूबर 1988 को जनता दल बना। नेताजी इसके प्रदेश अध्यक्ष बने। इसी जनता दल से नेताजी 1989 में पहली बार सीएम बने।
90 के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन जोर पकड़ रहा था, तब प्रदेश में इसके प्रतिरोध की आवाज नेताजी थे।
इसीलिए तो मुझे मशहूर शायर की यह शायरी याद आ रही है---
कोई दीवाना कहता है
कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को
बस बादल समझता है
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ
तू मुझसे दूर कैसी है
यह तेरा दिल समझता है
यह मेरा दिल समझता है।
अलग-अलग दलों के बनने और गैर कांग्रेसवाद के तमाम प्रयासों के गठजोड़ ने नेताजी का असर राष्ट्रीय फलक तक बढ़ाया। 1991 में जनता पार्टी के टिकट पर छठी बार विधानसभा पहुंचने के बाद, नेताजी बार-बार राजनीतिक दल बदलने से उकता चुके थे। उन्होंने अपना राजनीतिक दल बनाने का फैसला लिया। तमाम लोग इसके पक्ष में नहीं थे, क्योंकि एक नितांत क्षेत्रीय दल बनाने के बाद राष्ट्रीय मामलों में मौजूदगी प्रभावित होने का खतरा था। लेकिन, नेताजी ने 1992 में समाजवादी पार्टी बनाकर अपने कद को विस्तार दिया। वह एक जैसी विचारधारा के सभी राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलते रहे। इसका असर यह हुआ कि पूरे देश में उनकी पैठ और साझा फैसलों में उनका मत महत्वपूर्ण होता गया।बात 1992 की होगी, जब पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन लखनऊ में हो रहा था। उस समय वे चाहते थे कि मुंबई और महाराष्ट्र के लोग भी सम्मेलन में भाग लेने आएं। लोग गये भी। बात 1995 महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव की है जब स्वयं नेताजी ने प्रचार किया और उसका असर यह हुआ कि सपा के तीन विधायक सुहैल लोखंडवाला, बशीर पटेल व मुहम्मद अली चुने गए। इसी दौरान पार्टी ने हुसेन दलवाई को विधान परिषद में भेजा। थोड़े समय बाद हुए उपचुनाव में नवाब मलिक भी मुंबई की कुर्ला नेहरूनगर सीट से सपा के टिकट पर विधायक चुने गये। सन् 1997 के बीएमसी चुनाव में 21नगरसेवक चुने गये फलस्वरूप एक मनोनीत नगरसेवक भी चुना गया।बालीवुड कलाकारों को राजनीति में ले जाने का श्रेय नेताजी को ही हैं। राज बब्बर , जया बच्चन, जया प्रदा, संजय दत्त ,फिल्म निर्माता-निर्देशक मुजफ्फर अली प्रमुख हैं। वैसे सैफई महोत्सव में तो बालीवुड की उपस्थिति रहती ही है। नेताजी की बात मानकर ही अमिताभ बच्चन यूपी के ब्रांड एम्बेसडर बने थे। वहीं भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी और दिनेश लाल यादव 'निरहुआ'पर उनका प्रभाव भी है।
1995 तक वे दो बार यूपी के सीएम रह चुके थे। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला। सबसे बड़ा दल रहे भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण मिला, लेकिन वह असफल रही। इसके बाद नेताजी अलग-अलग प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर सरकार बनाने की संभावनाओं पर काम शुरू किया। संयुक्त मोर्चा बना। कहा तो जाता है कि नेताजी पीएम पद की रेस में थे, लेकिन दूसरे प्रदेशों के अपने ही राजनीतिक समकक्षों की वजह से ऐसा नहीं हो सका। आखिरकार हिंदी भाषी प्रदेश के लोगों के लिए अपरिचित नाम रहे एचडी देवेगौड़ा के नाम पर सहमति बनी। नेताजी के भाग्य ने साथ नहीं दिया। फलस्वरूप वे रक्षामंत्री बने।
आज नेताजी की कमी हम सभी को खल रही है। विशेष रूप से हर किसी को नाम से बुलाने की उनकी मेमोरी की तो सभी दिवाने थे। मुंबई के एक कार्यक्रम में जब उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा तो सहसा मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।ऐसे नेताजी को भारत रत्न दिया जाना चाहिए।
ऐसे में मुझे पाकिस्तानी शायर वहीद अख़्तर की शायरी याद आ रही है-
हर एक लम्हा किया कर्ज़ जिंदगी अदा,
कुछ अपना ह़क भी था हम पर वही अदा न हुआ।
शिक्षाविद् चंद्रवीर बंशीधर यादव
(लेखक महाराष्ट्र के सामाजिक चिंतक हैं।)
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