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मैं कोई अजर-अमर हूँ थोड़े...!



जीवन में जितने भी आए...!

कंकड़-पत्थर या फिर रोड़े....

तेरे ख़ातिर....बस तेरे ही ख़ातिर....

मैंने खुद ही उनको फोड़े....

नादाँ  हो...तुम क्या जानो...?

जाने कितने रिश्ते-नाते,

तेरे ख़ातिर....बस तेरे ही ख़ातिर...

मैंने खुद ही आगे जाकर तोड़े...

कैसे कहूँ और क्या बतलाऊँ...?

तेरे ख़ातिर...बस तेरे ही ख़ातिर....

ना जाने किस-किस के...!

हाथ-पाँव भी मैंने जोड़े...

जतन किया उमर भर सारी,

दौड़ाये अपने सारे घोड़े....

तेरे ख़ातिर....बस तेरे ही ख़ातिर...

तीर कमान के सब मैंने छोड़े...

पर...तुम भी...निगोड़े...!

फ़न में अपने...अव्वल निकले...

जहाँ गए...वहीं सब गोड़े....

अब कैसे बतलाऊँ यह मैं सबको...

कि दिखी जीत जब सामने तुमको,

तुम फट से अपनी राहें मोड़े....

अब तो तुम खुद ही बतलाओ,

तेरे ख़ातिर....बस तेरे ही ख़ातिर...

आखिर लड़ूँ मैं कब तक...?

जो...दुनिया तुम पर ना बरसाए कोड़े

और...बताओ यह भी तुम...!

खड़ा रहूँ मैं कब तक तुम संग,

बस ढकने को तेरे करतब भोड़े...

अब तो तू समझ ले पगले...!

जगवालों के सारे मायावी नखड़े....

वरना छोटी-मोटी बातों पर भी,

तुम खुद ही होगे भाग खड़े....

खड़ा रहूँगा तब भी वहाँ मैं,

तेरे ख़ातिर... बस तेरे ही ख़ातिर...

पर... मानो तुम यह कटु सच्चाई...!

मेरे भी दिन हैं अब थोड़े...और...

दुनिया भी यह मजे से जाने है,

मैं कोई अजर-अमर हूँ थोड़े....!

मैं कोई अज़र-अमर हूँ थोड़े....!


रचनाकार...

जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद--कासगंज

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