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लोकतंत्र के मुखौटे में जी रहे हैं हम


मंगलेश्वर त्रिपाठी

कहने के लिए तो भारत, विश्व स्तर पर सबसे मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश की पहचान रखता है। भारत की लोकतांत्रिक  व्यवस्था से राजनैतिक प्रणाली द्वारा देश के नागरिकों को अपनी मर्जी के अनुरूप सरकार चुनने का अधिकार प्रदान करती है, जिससे देश का प्रत्येक नागरिक  सरकार का चुनाव करने में अपने मताधिकार का प्रयोग करता है और अगले चुनाव में सरकार को बदलने की शक्ति रखता है। फिर भी वह राजनेताओं के हाथों पीड़ित हैं। 

भारतीय लोकतंत्र की जहाँ अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं,  वहीं उससे कहीं अधिक समस्याएं भी हैं और इन समस्यायों की उपज स्वयं राजनीति से जुड़े लोगों के सत्ता मोह और स्वार्थ के कारण है। उनके व्यक्तिहित और दलहित से पुष्पित-पल्लवित राजनीति,अब भस्मासुर बनकर उनको ही नहीं भारत के लोकतंत्र का भी विनाश कर रही है। भारत माता के शरीर को शव में परिवर्तित करने की तैयारी कर रही हैं। 


भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के बारे में जब बात करते हैं तो, राजनीति और भ्रष्टाचार का समांतर उपयोग किया जा रहा है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था अन्तिम चरण तक भ्रष्ट हो चुकी है।  हमारे राजनैतिक तंत्र में अधिकांश राजनेता भ्रष्ट और अपराधिक छवि के हैं,जो काफी हद तक देश के विकास  में अवरोधक हैं। कुछ ईमानदार और  गैर भ्रष्ट भी है, परंतु ईमानदारों का प्रतिशत बहुत कम है। भ्रष्ट नेताओं की भ्रष्ट कृत्य सार्वजनिक रूप से उजागर भी होते हैं। शुरुआती दौर में कुछ दिखावटी कार्यवाही भी होती है, लेकिन शायद ही कभी इसके लिए उन्हें दंडित किया जाता है। हमारे राजनेताओं की ऐसी मानसिकता और व्यवहार देश पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। 


देश में एक बड़ी विडंबना है, हमारे देश में  सरकार चलाने के लिए कोई न्यूनतम शिक्षा मानदंड नहीं है। आदिकाल से लेकर आज तक का इतिहास गवाह है कि देश ने कई अशिक्षित और गैर-योग्य उम्मीदवारों को पैसे और मांसपेशियों की ताकत के आधार पर विशुद्ध रूप से राजनीति में उच्च शक्तिशाली स्तरों तक देखा है। जब सत्ता ऐसे भ्रष्ट और अशिक्षित राजनेताओं के अधीनस्त हो तो हम अपने राष्ट्र के सही दिशा में बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते। हमारा देश भ्रष्ट राजनीतिज्ञों से परिपूर्ण देश है, जो अपने भ्रष्ट क्रिया-कलापों से अधिक से अधिक धन अर्जित करने  की बाजीगरी करने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचते।

भारतीय लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भ हैं, न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और समाचार- तंत्र (मीडिया)। इन चारों स्तम्भों की अपनी स्वतंत्र सत्ता है, इन्हें स्वायत्तता प्राप्त है। लोकतांत्रिक भारत (डेमोक्रेट इंडिया) में चारों स्तम्भों का सुचारु रूप से संचालन भारतीय लोकतंत्र की पाँचवीं विशेष उपलब्धि है। परंतु वास्तविकता यह है कि चारों स्तंभ को भ्रष्ट्रचार रूपी कैंसर ने ग्रसित कर लिया है। कोई भी तंत्र भ्रष्ट्राचार से अछूता नहीं है।


भारतीय लोकतंत्र  की विशालकाय और प्रथम समस्या भारतीय- भारतीय में भेद है। यह भेद-रूपी हलाहल दो रूपों में लोकतंत्र को जहरीला बना दिया है । पहला है " हिंदूवाद बनाम मुस्लिमवाद"। तथा दूसरा है "जातिवाद"। हिंदूवाद तथा मुस्लिमवाद ने भारतीय लोकतंत्र व राष्ट्र को धर्म-निरपेक्ष छवि को कलंकित ही नहीं किया, बल्कि देश को खंड–खंड करने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया है । दूसरी ओर, जातिवाद ने तो घर-घर में लड़ाई का बीज बो दिया है । आरक्षण भारतीय लोकतन्त्र को और भी जहरीला बना दिया है, स्कूल हो या नौकरी न्याय व्यवस्था हो या राजनीति ,सभी पद आरक्षण की माला में गूंथ दिया गया है।


लोकतंत्र शासन की दूसरी समस्या है प्रज्ञाचक्षुत्व। लोकतंत्र की आँखें नहीं होतीं । लोकतंत्र में मंत्री, उपमंत्री की आँख से देखता है। उपमंत्री सचिव की आँख से, सचिव उपसचिव की आँख से, डिप्टी-सेक्रेटरी अंडर-सेक्रेटरी की तथा अंडर-सेक्रेटरी 'फाइल' की आँख से देखता है। कोई अपनी आंख से देखने को तैयार नहीं हैं। सरकार द्धारा संचालित अनगिनत योजनाएं और शिकायती प्रकोष्ठ महज खाना पूर्ती के लिए बनाए गए हैं, शिकायत का निस्तारण करने वाला रुतबेदार कौन है ? जिसके विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई गई है, वही गुण दोष को ताख पर रख कर शिकायत का निस्तारण कर देता है। न्याय पालिका की शरण में जानें वाला व्यक्ति अधिकतम पीड़ित रहता है , फिर भी न्याय व्यवस्था का कोई भी कार्यालय, कार्य की जिम्मेदारी उठाने वाले बाबू मुंशी चपरासी  बगैर मेहनताना प्राप्त किए एक शब्द लिखने बोलने को तैयार नहीं हैं। आम जनता इसकी शिकायत किसके पास पहुंचाए जब सभी के सभी भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकारी संस्थानों का निमार्ण तो हुआ है, लेकिन उसकी जिम्मेदारी उठाने वाले वरिष्ठ से लेकर कनिष्ठ , सभी के सभी सदस्य भ्रष्टाचार की आगोश में जकड़े हुए हैं। भारतीय लोकतंत्र में कौन सा तंत्र (स्तंभ) सबसे ज्यादा भ्रष्ट है ,यह कहना तो मुश्किल है, परंतु स्पर्धा जरूर है कि कौन सबसे बड़ा भ्रष्ट है।


एक लोकतांत्रिक लेखक ने अपने पुस्तक "भारतीय लोकतंत्र—समस्याएं और समाधान" में सिद्ध किया है कि संसद की सर्वोच्चता एक झूठ है, फरेब है, मुखौटा है, दरअसल संसद की अहमियत पूरी तरह से खत्म कर दी गई है और सांसदों के असली काम, यानी कानून बनाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। संसद में सिर्फ वही बिल पास हो पाते हैं, जिन्हें सरकार पेश करे। सवाल यह है कि यदि विपक्ष का पेश किया कोई बिल कानून नहीं बन सकता, तो विपक्ष की क्या आवश्यकता है और यदि सरकार का पेश किया गया हर बिल कानून बन जाता है, तो संसद की आवश्यकता क्यों है? एक और गंभीर मुद्दा यह है कि व्हिप की प्रथा के कारण हर सांसद और विधायक अपने दल की नीतियों के अनुसार वोट देने के लिए विवश है तो किसी बिल पर मतदान से पहले ही स्पष्ट हो जाता है कि बिल के पक्ष और विपक्ष में कितने वोट पड़ेंगे, इस नियम के कारण बिलों पर मतदान की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। इस एक अकेली व्यवस्था के कारण संसद, मंत्रिपरिषद और विपक्ष सब अर्थहीन हो गए हैं।


हमारा संविधान व्यावहारिक रूप से एक अकेले व्यक्ति को लगभग असीमित शक्तियां दे देता है और वह एक व्यक्ति किसी तानाशाह की ही तरह देश को किसी भी दिशा में हांक सकता है। इस लोकतंत्र में जनता की भागीदारी की तो छोड़िए, विधायकों, सांसदों और विपक्ष किसी की भी भागीदारी नहीं है। शासन-प्रशासन, एक व्यक्ति के इशारे पर चलता है। राज्य सरकारें कठपुतलियों की तरह बेबस हैं और स्थानीय स्वशासन का अस्तित्व भी कागजी है। इन सब कारणों से भ्रष्टाचार बढ़ता है और चापलूस और अक्षम लोग नेता बन जाते हैं। ये सारे सवाल प्रासंगिक हैं और इनका जवाब आवश्यक है। यह अत्यंत खेदजनक स्थिति है कि देश की अधिकांश जनता को तो यह भी मालूम नहीं है कि उन्हें अपने प्रतिनिधियों से पूछना क्या चाहिए। असल स्थिति यह है कि हम लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के मुखौटे में जी रहे हैं।

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