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भूपेंद्र सिंह के लिए यूपी भाजपा की नई टीम का गठन बड़ी चुनौती!

 

मनोज श्रीवास्तव/लखनऊ। यूपी भाजपा अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह अपनी नयी टीम बनाने को लेकर बहुत गंभीर हैं। इन दिनों वे जी जान लगा कर पुरुषार्थी और पराक्रमी कार्यकर्ताओं की खोज कर रहे हैं। संगठन के मझे खिलाड़ी होने के बाद भी परिक्रमा जीवी और सिफारिशी लोगों से छुटकारा पाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। स्वयं कड़े अनुशासन में पले बढ़े प्रदेश अध्यक्ष के सामने प्रदेश के कार्यकर्ताओं में अनुशासन बना कर रखना कठिन परीक्षा बन गया है। विधानपरिषद की तीनों स्नातक सीट और एक शिक्षक सीट जितने के बाद उनका मनोबल बढ़ा है। अल्प कार्यकाल में ही भूपेंद्र सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने पहली बार विधानपरिषद में समाजवादी पार्टी से विपक्ष की कुर्सी खाली कराने का इतिहास रचा है। उसके बावजूद भी लोकसभा चुनाव 2024 से उत्तर प्रदेश में पहले नगर-निगम चुनाव में बड़ी जीत के बाद ही उनका नेतृत्व स्थापित होगा। 2014 और 2019 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद 2017 और 2022 से उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकारें पूरे रौ में चल रही हैं। उसके बाद भी क्षेत्रवार यूपी भाजपा को शायद ही कोई जनाधार वाला कद्दावर नेता मिल पाया है। देश में नरेन्द्र मोदी युग के आरंभ के साथ ही 2014 में भाजपा में संगठन महामंत्री राकेश जैन के सह संगठनमंत्री बन कर आये सुनील बंसल कड़ी मेहनत कर प्रदेश संगठन महामंत्री बने। उनके कार्यकाल में यूपी में भाजपा को रिकाॅर्ड मजबूती मिली। यूपी को दोबारा उनके जैसी हनक का संगठन महामंत्री मिलना अब शायद मुश्किल होगा। यूपी में भाजपा कार्यकर्ताओं का एक समूह आज भी सुनील बंसल के नेतृत्व में ही अपना विश्वास रखता है। इसलिये सुनील बंसल यूपी से जाने के बाद भी यूपी भाजपा के लिए बहुत प्रासंगिक हैं। उन्होंने भाजपा में क्षत्रप युग का अंत किया। जिसके कारण पार्टी में अनुशासन स्थापित हुआ। लेकिन जब कार्यकर्ताओं को बढ़ाने का समय आया तो उन्होंने परिक्रमा धारियों को विशेष तवज्जो दिया। उनके कार्यकाल में बाबुन्नमुखी और कार्यालयजीवियों का स्वर्ण युग रहा। जिसके कारण उनके समय में मजबूत संगठन मिलने के बाद भी भाजपा में मजबूत नेता नहीं पैदा हो सके। सुनील बंसल जितने मुखर थे उसके विपरीत नये महामंत्री संगठन धर्मपाल कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी हैं। उनकी फिजीकल सक्रियता भी सुनील बंसल के मुकाबले अभी तक बहुत कमजोर है। लेकिन उनकी विनम्र व्यवहार ने कार्यकर्ताओं के बहुत बड़े वर्ग को तानाशाही की तबाही से मुक्ति प्रदान किया है।


मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संगठन में न के बराबर हस्तक्षेप करते हैं। उनकी भी अद्भुत विशेषता है। वे अपने लिए वफादारी सबमें ढूढ़ते हैं लेकिन वफादारी का ईनाम देने में पूरी सतर्कता से मितव्ययता वर्तते हैं। कठिन परिश्रम, ईमानदारी और चरित्र की कसौटी पर चट्टान की तरह स्थापित योगी को कोई दूसरा साथी नहीं मिल पाया। जब भी योगी आदित्यनाथ के कार्य प्रणाली पर चर्चा हुई है तब उन पर जातिगत आरोपों को लेकर उन पर हमले होते रहे हैं।

वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह योगी सरकार पार्ट-1 में पंचायती राज मंत्री थे। मुख्यमंत्री नौकरशाहों के माध्यम से पूरे कार्यकाल उनकी घेरेबंदी ही करते रहे। स्वच्छ छवि के मंत्री होने के बाद भी भूपेंद्र सिंह विभाग में खास कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं कर पाते थे। उन्हें हस्तक्षेप पसंद नहीं है। वे अंगुली उठानेवाला कोई काम न किए जाने वाली छवि के नेता हैं। न ही किसी के दबाव में निर्णय लेते हैं। भाजपा ने सांगठनिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश को छह भागों में अवध, कानपुर, काशी, गोरक्ष, ब्रज और पश्चिम क्षेत्र में यूपी को बांटा है। पहले बुंदेलखंड कानपुर से अलग था। क्षेत्रवार भाजपा के पास जितने अध्यक्ष हैं उनमें अधिकतर ऐसे हैं जिनका कोई निजी जनाधार नहीं है।अवध क्षेत्र के अध्यक्ष का पद रिक्त है। क्योंकि पूर्व अध्यक्ष शेष नारायण मिश्र का स्वर्गवास हो गया है। कानपुर क्षेत्र में मानवेन्द्र सिंह अध्यक्ष हैं। काशी क्षेत्र में महेश श्रीवास्तव, गोरक्षा क्षेत्र में धर्मेंद्र सिंह सैंथवार (सदस्य विधान परिषद),  ब्रज में रजनीकांत माहेश्वरी और पश्चिम में मोहित बेनीवाल क्षेत्रीय अध्यक्ष हैं। इनमें शायद ही कोई ऐसा है जो चुनाव जीत कर सदन में पहुंचने की क्षमता रखता हो। देखना है कि भूपेन्द्र सिंह और धर्मपाल की जोड़ी आगे यही परम्परा रखेगी या कुछ जिंदा जनाधार वालों को आगे लाएंगे। प्रदेश अध्यक्ष जिले के कार्यकर्ता से प्रदेश अध्यक्ष तक का सफर करने में संगठननिष्ठ, परिश्रमी, व्यवहारिक और ईमानदारी को लेकर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगने दिए हैं। यूपी भाजपा में ऐसे कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी संख्या है जो 2014 से पूर्व बहुत संघर्षशील रहे। जब पार्टी के अच्छे दिन आये तो कतिपय कारणों के नाते वह मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए। यह लोग भी अहिल्या की तरह यूपी नेतृत्व की नई टीम से अपने उद्धार की आशा लगाए बैठे हैं।

सोशल मीडिया के युग में हाईटेक हुई पार्टी तत्कालीन प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा दिए गए नारे "सबका साथ सबका विकास" का घोष कर डबल इंजन की सरकार वाली पार्टी बन कर बुलंदी छू रही है।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बने रहने के लिS पार्टी में हर वर्ग समाज के होनहार वोकल कार्यकर्ताओं की टीम चाहिए। मीडिया में जानेवाले कार्यकर्ता में पार्टी की आत्मा बसती है। उसके वाक्पटुता, तर्कों और प्रति उत्तपन्न मति से पार्टी की छवि जनता के हृदय में आकर लेती है। जो पूर्व अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह करने में पूरी तरह फेल रहे। अपवाद छोड़ दिया जाये तो उन्होंने पार्टी के मीडिया विभाग को एक जाति विशेष का फ्रंट बना दिया था। भूपेंद्र सिंह के सामने चुनौती होगी कि हर वर्ग से होनहार वोकल प्रवक्ता दें, जिसमें जातीय व क्षेत्रीय संतुलन उचित फोरम पर भी दिखे। पार्टी के ऐसे नेताओं से जो तकनीकी रूप से भाजपा के हैं लेकिन उन पर भाजपा का कोई अनुशासन नहीं लागू होता उनके क्षेत्र में दूसरे कार्यकर्ता को स्थापित करना भी कठिन काम हो गया है।वरुण गांधी, संघमित्रा मौर्य, बृजभूषण शरण सिंह आदि के क्षेत्रों में भाजपा को सांगठनिक और सामरिक दृष्टि से मजबूत बनाये रखने में संगठननिष्ठ लोगों को स्थापित करना मुश्किल खोज है। ऐसे में राज्य की विपक्षी पार्टियों को ध्यान में रख कर अपनी व्यूहरचना करनी होगी। लगातार सत्ता से बाहर होकर प्रदेश की दूसरे नम्बर की पार्टी समाजवादी पार्टी के मुखिया सैद्धांतिक मुद्दों से ज्यादा निजी हमलों पर उतर गये हैं। 2017 में चुनाव हारने के बाद उनके व्यवहार में सहज ही चिड़चिड़ापन देखा जा सकता है। वह भाजपा विरोध में कितने नीचे चले जायेंगे इसका कोई अंत नहीं है। पिछले वर्षों में बसपा व क्षेत्रीय दल निर्णायक विपक्ष बनते नहीं दिखे। कांग्रेस यूपी में समय-समय पर रश्म अदायगी करती है।वह केवल प्रतीकात्मक विपक्षी पार्टी बन चुकी है।

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