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मानववाद के प्रणेता भारत के मसीहा डॉ.बाबा साहब आंबेडकर


अप्रैल माह आते ही हम सभी वर्ष भर से जिस तारीख का इंतजार करते रहते हैं वह है 14 अप्रैल। अर्थात14 अप्रैल 1891 को जन्में महामानव भारत रत्न डॉ. बाबा साहब  भीमराव आंबेडकर की जयंती। देश ही नहीं विदेशों  में भी  जिस उत्साह से बाबा साहब की  जयंती मनायी जाती है उससे सिद्ध होता है वे भारत के साथ ही विश्व में भी  वंदनीय हैं।यही वजह है कि विश्व के 100से भी अधिक देशों में उनकी जयंती मनायी जाती है।इस दिन उनके करोड़ों अनुयायी उनके जन्मस्थल महू(मध्य प्रदेश),बौद्ध धम्म दीक्षास्थल दीक्षाभूमि नागपुर,मुंबई दादर स्थित चैत्य भूमि सहित प्रत्येक बौद्ध विहार और देश में सर्वत्र लोग उन्हें अभिवादन करने के लिए इकट्ठा होते हैं। भारत की पहचान बाबा साहब ने  सामाजिक-आर्थिक रूप से बंटे हुए भारत के  भू-भाग को  एक राष्ट् बनाया। भारत का संविधान लिखकर  बाबा साहब ने भारत को पूरी दुनिया में सबसे आगे रहने की दिशा दी ।आज उन्हीं की वजह से सदियों से उपेक्षित ,वंचित मानवजाति में सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।उन्होंने ही समाज की रूढ़िवादिता को समाप्त कर मानव हित में सबसे बड़ा कार्य किया।सभी मानव एक समान हैं सभी को जीवन जीने का समान अधिकार उन्होंने ही दिया है। वैसे मानववाद भिन्न रूपों में विश्व की प्रत्येक सभ्यता में दिखा।भारत में 1000ईसा पूर्व में चार्वाक दर्शन की विचारधारा में धार्मिक विचारों से हटकर मनुष्य के विवेक और तर्कशक्ति पर जोर दिया गया।चीन, प्राचीन यूनान और अन्य दूसरी संस्कृतियों में भी मानववादी मिलते हैं। 


मानववादी,मानव की क्षमता में विश्वास रखते हैं। भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में बीसवीं सदी के सबसे बड़े मानववादी बाबा साहब ही थे।वैसे रसल और टालस्टॉय भी बीसवीं सदी के ही मानववादी थे।वास्तव में मार्क्स भी अपने प्रारंभिक लेखों में मानववादी नजर आते हैं।लेकिन बाबा साहब ही सबसे बड़े मानववादी थे। वहीं आक्सफोर्ड डिक्शनरी ने मानववाद की जो परिभाषा दी है वह इस प्रकार है -एक दृष्टिकोण अथवा वैचारिक व्यवस्था जिसका संबंध मानव से है,न कि दैवी अथवा अलौकिक पदार्थों से।मानववाद एक विश्वास अथवा दृष्टिकोण है जो सामान्य मानवीय आवश्यकताओं पर बल देता है और मानवीय समस्याओं के लिए केवल तर्कसंगत समाधान तलाशता है और मानव को उत्तरदायी एवं प्रगतिशील बुद्धिजीवी मानता है।    लेकिन भारत में मानववाद को बाबा साहब ने स्थापित करने का कार्य किया,क्योंकि बाबा साहब ने महसूस किया कि भारत के स्वर्णिम गौरव का सूत्र कहीं खो गया है,ऐसे में उन्होंने ही स्वर्णयुगीन कई सभ्यताओं का आक्रमण झेल चुका  भारत जो कि अपनी मूल सभ्यता से डिगता जा रहा था उसको  खड़ा करने का मूल   कार्य किया था। वह भी ऐसे समय में जब  भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक ढांचों में सेंध लग चुकी थी। भारत की संस्कृति  पूरी तरह से  तबाह होने के कगार पर थी। वैसे इस सेंध का भारतीय कृषि पर  सर्वाधिक असर पड़ा। परिणाम स्वरूप भारतीय समाज संरचना का संतुलन बिगड़ने लगा। किसान केंद्र से गायब होने लगे। उनके जीवन की समृद्धि लुटने लगी। देश में मजदूर श्रमिकों की संख्या बढ़ने लगी, साथ ही साथ एक नये किस्म के मध्यम वर्ग का उदय होने लगा जो मानवीय मूल्यों के मुकाबले कागज पर पैदा किये गये ।आर्थिक शक्ति को ही सब कुछ स्वीकार किया जाने लगा। ऐसे में बाबा साहब  ने तेजी से परिवर्तित होते सामाजिक संक्रमण काल में  बौद्धकालीन भारतीय सभ्यता के मानदंडों का चुनाव किया। उनके सिद्धांत  चरितार्थ भी हुए उन्हीं की वजह से भारत समृद्ध राष्ट्रों के मुकाबले एक समृद्धतम राष्ट्र की रेखा के करीब आने लगा।   

   'सिंबल आफ नालेज ' बाबा साहब ने  32 डिग्रियाँ ग्रहण की थी और वे  9 से अधिक  भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्हें हम  आधुनिक भारत  के राष्ट्रपिता, महान आदर्श विद्वान,मानवतावादी महामानव के रूप में सदैव पढ़ते रहेंगे। महाड के चवदार सत्याग्रह  के माध्यम से उन्होंने  स्पष्ट  रूप से मानवजाति के उत्थान का मार्ग प्रशस्त  किया था। जल ही जीवन है।इस जल पर सभी  को अधिकार देने का मानवीय कार्य बाबा साहब ने ही किया है।उन्हीं  की ही देन है आज कोई प्यासा नहीं है और न भविष्य में भी रहेगा। वास्तव में उन्हीं की वजह से  स्वतंत्रता,समता और बंधुता  भाव प्रबल हुआ। इससे ही मानववाद  प्रबल हुआ है। वैसे उनसे किसी की तुलना नहीं की जा सकती है।वे ही सर्वश्रेष्ठ थे। भेदभाव वाले हमारे मुल्क में मानववाद के  सृजनहार बाबा साहब ही हैं,उन्हीं की वजह से  आज देश का बहुजन समाज और देश की आधी आबादी कही जाने वाली महिलाएं  अपने आपको घर की चार दीवारी से बाहर अपने परिवार का  विकास करने को स्वतंत्र है। बाबा साहब का  शिक्षित होने,संगठित होने और संघर्ष होने का विचार आज ही नहीं सदैव बहुजन समाज  की प्रगति में सहायक होता रहेगा। वास्तव में भारत के उपनिवेशवादी एवं राष्ट्रवादी लेखन में हमारे देश के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक निर्माण में बहुत बड़ा योगदान देने वाले उपेक्षित वर्ग की उपेक्षा की गई थी। लेकिन बाबा साहब ही थे जिन्होंने अपने विपुल लेखन द्वारा उपेक्षित वर्ग को समान रूप से सम्मान दिलाने का मानवीय कार्य किया।

वहीं यदि हम  उनके समकालीन सभी भारतीय नेताओं का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि उनमें से वे ही इकलौते ऐसे सक्षम युगद्रष्टा थे, जो भारत को शक्तिशाली बना सकते थे। संभवतः उन्होंने सौ वर्ष पहले ही दुनिया का भावी चित्र देख लिया था, जिसके केंद्र में एक सर्वांगीण विकसित सभ्यता का स्वरुप था। वास्तव में यह हमें अब अनुभव हो रहा है कि पिछले कुछ दशकों में हमने क्या क्या खोया है। हमारी आत्मनिर्भरता का मेरु टूट गया, स्वावलंबन का धैर्य खो गया। जिसके अभाव में न कोई स्वतंत्र हो सकता है और न स्वाभिमानी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें इस बात से भी मिलता है कि आज भी हमारे देश में छात्र, डॉक्टर, इंजीनियर वैज्ञानिक, उद्योगपति और तो और हमारे देश‌ के प्रधानमंत्री भी हर बात में अमेरिका, जर्मनी, और रूस का रूख करते हैं। अतः स्पष्ट है कि बाबा साहब पहले जितने प्रासंगिक  उतने ही आज भी हैं और सदैव रहेंगे। 

अमेरिका की विख्यात कोलंबिया यूनिवर्सिटी में मास्टर ऑफ आर्टस् करने के लिए उन्होंने सन 1913में प्रवेश लिया और 1915 में वे एम.ए.पास हुए। उनकी पहली थीसिस का शीर्षक था ‘ऐंशिएंट इंडियन कॉमर्स ‘। फिर ‘नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया’ शीर्षक‌ से उन्होंने एक और थीसिस प्रस्तुत की । युवावस्था से उनकी  भारतीय अर्थव्यवस्था में गहरी रूचि थी। उनकी तीसरी थीसिस थी ‘दि प्राब्लम ऑफ रूपी’, जो आगे चलकर एक पुस्तक स्वरूप में प्रकाशित हुई। यही पुस्तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का आधार बनी। कोलंबिया से ही उन्होंने पीएचडी की डिग्री प्राप्त की, जिसका विषय था – ‘द इवाल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फिनैंस इन ब्रिटिश इंडिया’। इसी थीसिस ने ब्रिटिश शासकों का ध्यान खींचा और वे यह जान गये कि यह एक महान् अर्थशास्त्री है। बाबाज्ञसाहब ने राष्ट्र निर्माण के जिस मार्ग पर कदम बढ़ाया, उस मार्ग पर कानूनी पेचीदिगियां कदम-कदम पर उन्हें परेशान करने लगी। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भी बैरिस्टर बनना एक जरूरी योग्यता सी बन गई थी। अतः उन्होंने लंदन जाकर उस योग्यता की भी पूर्ति कर ली। उन्होंने अपने इस कानूनी ज्ञान का उपयोग मानवहित में किया।

जब भारत सन 1899 – 1900 के मध्य भयंकर अकाल का शिकार हो गया था। समूचे अकाल प्रभावित क्षेत्र से लोग और पशु भुखमरी का शिकार हो चुके थे। तब 1918 में बाबा साहब ने एक पेपर लिखा जिसका शीर्षक था- ‘स्माल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज’। इसमें वे एक अलग ही सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, ‘कृषि को उद्योग घोषित करो। भारत में करोड़ों किसान छोटी-छोटी जोतों पर सदियों से खेती करते आए हैं, पर वे कभी भी नफा -नुकसान का ध्यान नहीं रखते और परेशानी भरा जीवन जीते हैं। जब कृषि उद्योग बन जाएगी तो जिस सिद्धांत पर उद्योग चलते हैं, उसी पर कृषि भी चलेगी, अर्थात् सरप्लस पैदा करना और घाटे -मुनाफे का हिसाब रखना अपने आप सभी को आ जाएगा। जिस प्रकार बिना सरप्लस पैदा किए उद्योग नहीं चलता, उसी तरह बिना सरप्लस के किसानी भी नहीं होनी चाहिए‌।’

स्वाधीन भारत का पहला लोकसभा चुनाव 1951-1952 में हुआ। इस चुनाव में उनकी पार्टी ‘शेड्यूल कास्ट फेडरेशन’ भी सत्ता प्राप्त करने की स्पर्धा में उतर गयी। उन्होंने पार्टी का जो मेनिफेस्टो जारी किया, उसका सार तत्व यह था कि ‘जब तक भारत की कृषि व्यवस्था में बदलाव नहीं लाया जायेगा, तब तक भारत एक महान औद्योगिक सभ्यता का रुप नहीं ले सकेगा।”शायद यही वजह थी कि उनके मेनिफेस्टो में कृषि का मशीनीकरण,  छोटी जोतों को हटाकर बड़े फार्मों पर खेती,उत्कृष्ट बीजों और खादों का इस्तेमाल।

किंतु उन्हें अपने चुनावी राजनैतिक अभियान में सफलता नहीं मिल सकी, तथापि भारत को सशक्त और उन्नत बनाने का इरादा संघर्ष करता ही रहा, उनकी बातों को लोगों को कुछ स्वार्थी लोगों ने जनता को समझने नहीं दिया। अब से भी हम उनके सिद्धांतों पर चलने लग जायें तो भी हमारा देश विश्व पटल पर अपना स्वर्णिम गौरव पुनः पाने में सफल हो जायेगा।काश! उस समय उनकी पार्टी सत्ता में आती तो निश्चित रूप से  देश का चौमुखी विकास बहुत ही कम समय में हो गया होता और  सामाजिक समानता का भाव और भी प्रबल होता।फलस्वरूप सर्वत्र सामाजिक समानता का बोल बाला होता‌।बाबा साहब मानवजाति के सबसे बड़े उत्थान करता  थे इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनके  संविधान सभा के अंतिम वक्तव्य (25नवंबर 1949) से स्पष्ट होता है कि जिसमें उन्होंने कहा था हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए।हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए । राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं हो सकता,जब तक इसकी बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ क्या है ?इसका अर्थ है ऐसी जीवन शैली ,जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन का मूल सिद्धांत मानती हो।इसकी शुरुआत इस तथ्य को मान्यता देकर ही की जा सकती है कि भारतीय समाज में दो चीजें सिरे से अनुपस्थित हैं। इनमें एक है समानता। सामाजिक धरातल पर , भारत में एक ऐसा समाज है जो श्रेणीबद्ध असमानता पर आधारित है।और आर्थिक धरातल पर हमारे समाज की हकीकत यह है कि इसमें एक तरफ कुछ लोगों के पास अकूत संपदा है, दूसरी तरफ लोग निपट भुखमरी में जी रहे हैं।

इसीलिए उन्होंने अपने व्यक्तव्य में कहा था कि जितने जल्दी हम यह मान लें कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थों में हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं बन पाए हैं, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा । क्योंकि इस सच्चाई को स्वीकार कर लेने के बाद हमें एक राष्ट्र बनने की जरूरत महसूस होगी और इसके बाद ही हम इस लक्ष्य को हासिल करने के रास्तों और तौर -तरीकों पर विचार कर पाएंगे।इस लक्ष्य को हासिल करना बहुत मुश्किल साबित होने वाला है-अमेरिका में यह जितना मुश्किल साबित हुआ, उससे कहीं ज्यादा। अमेरिका में जाति कोई समस्या नहीं है । भारत में जातियां हैं और जातियां राष्ट्र विरोधी है। सबसे पहले तो इसलिए क्योंकि ये सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। 

 ये जातियां इसलिए भी राष्ट्र विरोधी हैं क्योंकि वे विभिन्न जातियों के बीच ईर्ष्या और द्वेष की भावना पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम  वास्तव में  एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें हर हाल में इन कठिनाईयों पर विजय पानी होगी।वह इसलिए क्योंकि बंधुत्व तभी संभव है जब हम एक राष्ट्र हों,और बंधुत्व न हो तो समानता और स्वतंत्रता की औकात मुलम्मे से ज्यादा नहीं होगी।

चंद्रवीर बंशीधर यादव

 (समाजसेवी  व शिक्षाविद् )

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